
कभी यूँ भी लगता है, कि मुहब्बत किससे है मुझे
क्यों तुम्हारी आँखो में अपनी ही पहचान ढूँढती हुँ
रंगत बदल जाती है चेहरे की, ज़िक्र आते ही तेरा, सच है मगर
ज़ाहिर ना हो जाए कहीं, कि हवा का रुख़ मोड़ देती हुँ
यूँ ही मुस्कुराना बेसबब….अच्छा नहीं, कि देख ले कोई
राज़दारी यूँ कि ख़्वाबों को भी पलकों पर ही तोड़ देती हूँ
जब गुज़र गई अब तक यूँ ही इज़हार या इनकार के बिना
कैसी फिर ये हलचल दिल में, और क्यूँ कर ये नादानियाँ,
कभी यूँ भी पूरा हुआ सफ़र, कि ये शहर फिर एक बार छोड़ती हुँ मैं
One reply on “कभी यूँ भी……पूरा हुआ सफ़र”
बहुत ही सुन्दर रचना।
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