थक कर, राह में रुक कर देखा जो आसपास
विरक्त मन और क्लांत है तन, अंधकार का नही कोई छोर
भीतर बाहर कालिमा में घुलती गंध जलते लहू की
सहना मुश्किल रहना मुश्किल, कुछ भी लेकिन कहना मुश्किल
औक़ात क्या मेरी क्या तेरी, बस रोटी – पानी की है दौड़
चलते रहने की क़ीमत पर, सहते रहना भी मजबूरी
बोलने की है आज़ादी फिर भी, चुप रहना भी मजबूरी
चमक दमक की आग में देखो तन भी जलते मन भी जलते
झूठी लेकिन शान दिखाने जलते रहना भी मजबूरी
जब से सीखा लिखना – पढ़ना, देखा सुंदर संसार का सपना
नीला अम्बर, हरी वादियाँ, मीठे झरने, चहचहाती चिड़ियाँ
उकेरता था भोला बचपन, चित्रकला की कॉपी में अक्सर
क्या अमीर और क्या फ़क़ीर, कौन नायक था, कौन था वीर
धुँधलाते बचपन के साथ धुलने लगे सारे ये भ्रम
काश कोई ये बतलाता तब, ये पुतले हैं बस माटी के
घुल जाएँगे बारिश में एक दिन, पीछे छोड़ेंगे बस कीचड़ !

_____________शुभा
3 replies on “भ्रम”
आपकी रचना में हमेशा गहराई होती है
इतने सुन्दर लेखन का राज बताइए
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आभार ऐसी सुंदर तारीफ़ के लिए
राज़ क्या हमारा आपका एक ही है
“कुछ ख़्वाब और कुछ ज़िंदगी”
😊😊😊🙏🏻🙏🏻🙏🏻
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फिर भी
मैं इतना गहराई से नहीं लिख पता जितना आप सुन्दर लिखते हो
फिर भी कोशिश जारी है
😃💐🍫🍫🍭
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