भूखे को खाना खिला दिया कभी
या कांपते बदन को कम्बल ओढ़ा दिया
चाकलेट थमा दी अधनंगे बच्चों को तो
ऊँचे मकानों – दुकानों की
किसी ने सैर भी करा दी
कभी देकर किसी गरीब को
कोई पुराना सा “ग़ैरज़रूरी” सामान
अपनी ज़िम्मेदारी कर ली पूरी
या कुछ ले दे कर बेवजह,
यूँ अपने मन को बहला भी लिया कभी
यूँ कर के कुछ कुछ या
कुछ भी नहीं !!
मान लिया ख़ुद को बड़ा आदमी
फिर उनके सर झुके रहें ऐसी
दम्भी उम्मीदें भी पाल लीं
असर रहता नहीं “सामानों” का देर तक
लेन देन से मिले सम्मान की
उम्र होती है बेहद छोटी
सर उठने लगता है अक्सर उनका
जिनको “छोटा” समझा था कभी
चंद दिनों में उतर जाता है ये नशा दान का
बाज़ार ही लगाता है अब मोल इंसान का
सालाना आमदनी से लगती हो क़ीमत जिसकी
किसी को क्या ख़रीदेगा वो
ख़ुद बिका हुआ आदमी….
शुभा झा बैनर्जी