क्या हाल हुआ तेरा नारी
कि सहमी सी सृष्टि की रचना है
कोई रौंद रहा है बचपन को
कुत्सित विकृत दुनिया देख देख
विधाता ख़ुद पर भी शर्मिंदा है
इतना कलुषित है मन इनका
कि इसमें भी दोष हम पर ही मढ़ा
तन से ऊपर भी है “नारी कुछ”
ये पाठ अभी सबको पढ़ना है
जिस सौंदर्य पर रचे गीत कई
वह तरुण – वय भयावह हुई
यौवन, तन मन को स्पर्श करे जब
लगता कोई एक दुर्घटना है घटी
देख सून हतप्रभ हूँ मै
कितनी असंगत “मेरी” गणना है
पत्थरो, प्रतिमाओ, पशुओ और प्रेतों से
होती नारी की ‘ तुलना ‘ है
जाने किसने ये काम किया
तेरी करुणा को “दुर्बलता” नाम दिया
कोमल है तन, मृदु है मन, लेकिन
शक्ति जो जीवन को साकार करे
उसकी भी क्या कोई उपमा है?
लालन पालन में जुटी रहे
और अपने का भी ना भान रहे
पालन पीढ़ियों का जो करे
उसे ही लाचार, थकी – हारी कहें?
बस! बहुत हुआ विलाप अभी
माना कि जो हुआ उसमें तेरा दोष नहीं
लेकिन तूने भी अब तक स्वयं ही
सम्मान का बिगुल फूँका ही नहीं
साहस अपना एक बार जुटा
फिर ज़ोरदार हुंकार भर
नारी सुलभ इस लज्जा को
कुछ क्षण का विराम तो दे
कुछ ऐसी दिखा अपनी छवि अब
कि पापी की आत्मा भी डरे
जो बीज सृजन का धारण करे
क्यूँ ना इस बार नाश का आह्वान करे
! निरपराधी नारी ना सुली चढ़े
लेकिन कमज़ोर पौरुष की चिता सजे
कुछ अधिक नहीं तुझसे आशा मेरी
लेकिन
न्याय जब “भीख” की वस्तु बने
तब न्याय स्वयं ही करने को
क्यूँ ना नारी ही “शंखनाद” करे
शुभा
2 replies on ““शंखनाद””
लेकिन
न्याय जब “भीख” की वस्तु बने
तब न्याय स्वयं ही करने को
क्यूँ ना नारी ही “शंखनाद” करे
Simply outstanding creation! The truth so bluntly ut forward. Keep writing, stay blessed.
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बहुत बहुत धन्यवाद रवींद्र जी
आप लोगों के प्रोत्साहन से लिखने की कोशिश जारी है
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