“प्यारे पापा …. जल्दी आ जाओ, आप नहीं रहते तो मम्मी कुछ अच्छा नहीं बनाती खाने में। मेरी नई ड्रेस भी लेनी है” पता “मेरे पापा, बड़ा बाज़ार, कलकत्ता। देखा, दो महीने पुराना पत्र आज आख़िर इस “डेड लेटर बॉक्स” में छाँट दिया गया है, अब कलकत्ता बड़ा बाज़ार में तो कई पापा है, ढूँढने से भी पाने वाले तक पहुँचा नहीं जा सकता तो आख़िर यहाँ छँट गया। ऐसे कई पत्र रोज़ इस खाने में छँट कर आते हैं जिसमें पाने वाले का कोई छोर नहीं।
वो रोज़ “इस खाने” में पत्र देखता है, हिसाब बनाता है, कारण लिख एक बक्से में जमा करता है, कभी कभी पढ़ भी लेता है……एक से एक चीज़ें निकल आती हैं, टाइम भी पास हो जाता है। उसका मन नहीं लगता अन्य डाकियों के साथ गप शप में, (कहाँ वो लोग और कहाँ ये एम एस सी पास)। वो उच्च शिक्षित हो कर भी डाक घर में छँटाई विभाग में कार्यरत है, क्यूँ ….सरकारी नौकरी जहाँ मिल जाए वहीं बढ़िया (ऐसा अक्सर लोग मानते हैं)। सो…..समय काटने के लिए ही, कई बार अधखुले पत्र पढ़ लेता है एक पत्र उसे कई दिनों से परेशान किए हुए है। किसी शिखा नाम की लड़की ने लिखा है, “…,अब तो मेरी पढ़ाई भी पूरी हो गयी, तुम्हारी नौकरी का कुछ हुआ..जल्दी करो….” (और भी बहुत कुछ)। ये पत्र डाकिये को कई बार लौटा दिया जाता है,। कारण – वो लोग कहते है यहाँ इस नाम की कोई लड़की नहीं रहती।
वो भी किसी ख़याल में खो गया लेकिन फिर दो लाइन का जवाब लिख दिया, “पोस्ट ऑफ़िस में डाकिये की नौकरी मिली है पर शायद तुम्हारे स्टैंडर्ड की नहीं, सो अब तुम निर्णय कर लो शादी का और मुझे सूचित करना” ।
दो महीने बीत गए, उस लड़की शिखा के नाम वाला कोई पत्र नहीं छँटा इधर।
वो चिड़चिड़ाया हुआ रहता है... छँटाई के काम में भी मन नहीं लग रहा…सोचता रहता है उसका पत्र आया भी होगा क्या? कहीं इस बार उन लोगों ने रख तो नहीं लिया…
क्या पता कब कोई पत्र उसके लिए इधर छँट कर आए….ढूँढता रहता है, अपनी जगह….अपना वजूद।
शुभा झा बैनर्जी