जब से नरेन्द्र मोदी / BJP ने भारी बहुमत से लोकसभा चुनाव जीता है, हर और एक ही प्रकार की चर्चा है …… “ये कैसे हो गया? अब घर – बाहर – ऑफिस में चर्चा से गरमा – गरम बहस तक पहुँचने में समय ही नहीं लगता, कोई for में है तो कोई against!!! धारणाए इतनी प्रबल हैं सब की, कि कोई किसी की सुनता ही नहीं | समर्थक मोदी के विरुद्ध कुछ सुनना नहीं चाहते (जीता है भाई लगभग 54 % जनता के साथ) और विरोधी हार का ठीकरा “छद्म राष्ट्रवाद, हिन्दू – मुस्लिम, पाकिस्तान के डर और भक्तों पर हुए सम्मोहन पर फोड़ रहे हैं | बचे – खुचे में BJP की दादागिरी और EVM तो है ही ……. कृपया ध्यान दीजिए यहाँ मेरा मुद्दा BJP या congress नहीं है – मुद्दा है जीत – हार को कैसे देखते हैं हम…।
ऐसा ही एक किस्सा मैंने दसवी और बारहवी बोर्ड के समय देखा …..रिजल्ट्स में बच्चों के 95 – 99 % तक मार्क्स आये |लोगों सुनाई देने लगा ये सब टूइशन का नतीजा है और अब तो क्वेस्चन भी सरल आने लगे हैं….आदि आदि । अरे क्या ये देखा आपने कि अब बच्चे कितनी मेहनत कर रहे हैं।फिर वही ख़ैर…एक ओर अगर हम कम अंक आने वाले बचों को प्रोत्साहित करते हैं तो अधिक अंक वालों की मेहनत का भी सम्मान किया जाए। उन्हें स्पून फ़ीडर या रटने वाला तोता बता कर उनकी उपलब्धि को ज़ीरो करना क्या उचित है?
क्या हम सटीक विश्लेषण – आत्म निरीक्षण (self assessment) – चुनौतियों को पहचानना और अपना सुधार ये सब नहीं सिखना – सीखना चाहते?
वास्तव में इन सब के बीच मुझे अपने कॉलेज के दिन याद आ रहे हैं जब हमारा रिजल्ट आता था तब अपनी क्लास में मैं या मेरी एक सहेली टॉप करती थी और हमसे सीनियर बैच में भी एक मैडम ही टॉपर हुआ करती | जैसे ही रिजल्ट आता और नम्बरों की गुणा – भाग शुरू होती कुछ लड़के (ज्यादातर ही ) खट से बोर्ड पर या दीवारों पर लिख देते “लड़कियों को प्रैक्टिकल में अधिक नमबर मिलते हैं ” | कुछ तो और ही जोशीले कॉलेज के कोरिडोर में चीखते “सब शक्ल का कमाल है” |
यकीन मानिये पूरी ख़ुशी में जम के चोट पंहुचा जाते थे तब ये शब्द …..खैर लगा चलो एक बार थ्योरी के मार्क्स भी देख लेते हैं ……देखें इन लड़कों में कोई वाकई तुर्रम है भी या सिर्फ हल्ला करने में माहिर हैं? थ्योरी में भी कमोबेश वही स्थिति !!!! वहां तो हाल अधिक ही बुरा था बेचारो का, कुछ फेल भी अधिक ही थे (….हा हा …) | लेकिन मानने को तैयार नहीं कोई …..उफ़ अब क्या किया जाए इस सोच का …..जब उत्तर पुस्तिका में नाम ही नहीं लिखा जाता तो क्या पहचान जब भी इस बारे में बात होती तो एक ताना पक्का होता, कि तुम्हारी तो लिखावट भी पहचान लेते हैं सर …..अब तो बात ही करना व्यर्थ है …..हम छोड़ देते इस टॉपिक को | यहाँ तक की , मेरी PhD अवार्ड होने वाले दिन एक जूनियर , (जिसे मैं आमतौर पर सीधा और सज्जन मानती थी) मेरे ही पति से कहता है ….”सर वो मैडम सुन्दर भी हैं न तो उनका सब काम आसानी से हो जाता है “….फिर क्या था पतिदेव् ने तुरंत उसे उसकी गलती का अहसास ज़रा जोर से करा दिया …
ये सब लिखने का मतलब यह नहीं की कोई आपबीती राम कहानी सुनाने का शौक है , मतलब ये है कि अगर कोई जीत गया तो उसे भी खुले मन से स्वीकार करना आना चाहिए | कैसा लगेगा एक धावक को जब वो मेहनत से दौड़े, फर्स्ट भी आ जाये लेकिन कहने वाले कहें अरे वो तो बाकि लोग ठीक नहीं दौड़े…….वरना ..…| या बच्चा किसी परीक्षा में फर्स्ट क्लास लाये और लोग बताये “इतने मार्क्स तो आजकल बड़े आराम से मिल जाते हैं, मेहनत तो हमारे समय में होती थी !!”
सोचने और सही अर्थों में तुलनात्मक analysis की आवश्यकता है अभी….
अगर जीते हुए से विनम्रता की अपेक्षा है तो हारने वाले को भी अपनी समीक्षा करनी होगी….वरना अपने अच्छे होने के बावजूद “आभागे और बेचारे” होने की ग़लतफ़हमी तो सब से आसान शरण है ही!!