अब पेड़ के किनारों पर ठहरी शाम नज़र आती नहीं
धूप, दिन भर धूप सी तमतमाते थकने लगती है जब
सूरज छिप जाता है कहीं पर लेकिन
अँधेरा कहीं भी होता नहीं
धक्क से जलने लगते हैं बड़े बड़े सफ़ेद चिराग़
साँझ के धुँधलके को खा जाते हैं और
दिन भर से जलती हवा को और जला देते है वो
शाम को चूल्हों से उठने वाले धुए से ज़रूर बच गए हैं हम
लेकिन बड़ी बड़ी गाड़ियाँ उगलती है जो ज़हर
जाने उसका क्या हिसाब रख रही है वो रूखी सी सड़क
महकती थी जो चाय की प्याली और धूप बत्ती में डूबी हुई
वो शाम पेड़ों के किनारे ढूँढते ढूँढते
बड़े मकानों की ख़ामोश मूँडेरो पर
उदास थक कर बैठ जाती है,
रात हो जाती है इधर और उधर..
प्लास्टिक के ठूँठ पेड़ों पर सजने लगी है झिलमिल झालरें
सब कहते है रौनक़ बड़ी रहती है तुम्हारे शहर में….
One reply on “शाम अब…कहाँ मिलती है”
Thanks Nimish ji and Vani for appreciating
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