लोकतंत्र, राजतंत्र या फिर हो जनतंत्र
एकमत गर आप हुए नहीं तो
निश्चित आरोप कि ये विद्रोह है
अर्नर्थ के अधिकार को , अर्थ की ली आड़ है
उजली सतहों के नीचे, स्वार्थ का ही राज है
नैतिकता की कसौटी पर लड़खड़ाए सारे रंगबाज़ हैं
संकीर्णता उदारता, धर्मांन्ध्ता – निरपेक्षता
भेदभाव – समानता, राष्ट्रवाद – राजद्रोह
शब्दों की सिर्फ़ गूँज है
शब्द ही शब्द है, अर्थ किंतु गौण हैं
नासमझ इसमें क्या करे, समझदार भी तो मौन है
विष्णु हों या वाल्मीकि
कबीर हों रहीम हों विवेकानंद या
गुरुनानक ही, ख्वाजा हों या पादरी
बात सबने एक कही,
सत्य एक है और वो परम सत्य भी
मानवता का दिया एक जैसा उपदेश भी
कैसे फिर संघ – सम्प्रदाय बन गए
समूहों में – दलों में समाज सारे बँट गए
सृष्टि में जो देखा तो तेरा मेरा कुछ नहीं
साथ साथ बाँटते हैं हम हवा वही – धरा वही
सभी को मिले एक से सूरज, चाँद और धरती
दृष्टि कहाँ ग़लत हुई, क्यूँ अलग ये दृष्टिकोण हैं
शब्द ही शब्द हैं..अर्थ क्यूँकि गौण है
सत्य का विचार नहीं, सही का आधार नहीं
अन्याय की जीत पर
क्या आज मानवता मौन है ?
शुभा झा बैनर्जी
2 replies on “मानवता मौन है ?”
क्या बात
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बहुत धन्यवाद नवनीत जी
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